मै बहुत दिनो से सोच रहा था कि अपनी बोलचाल की भाषा (हिन्दी) मे भी ब्लोग लिखुँ। इस के दो कारण हैं: पहला यह कि मेरे ज्यादातर मित्र और परिवार अँग्रेजी भाषा जानते तो है परन्तु उनकी अँग्रजी भाषा की समझ सीमित है। दुसरा कारण यह है की व्यक्ति जिस भाषा के वातावरण मे बडा होता है उस भाषा मे ज्यादा आसानी से अपनी भावनाएँ व्यक्त कर पाता है।
यह शायद कुछ लोगो को कटाक्ष जैसा लगे–मुख्यत: जो स्वयं को अँग्रेजी भाषा मे निपुण मानते है–परन्तु मेरे अनुभव के अनुसार यह बहुत सामान्य है कि किसी व्यक्ति कि पकड सबसे अधिक उसकी मात्र भाषा पर ही होती है। इतने वर्षौ के अनुभव के बाद–जिनमे मैने कई अँग्रेजी पुस्तके (काव्यातक व वैञानिक) पढी, वैञानिक पत्र पढे और अन्तत: १०० पेज की ऎक पी॰एच॰डी॰ थिसिस भी लिखी–मैने पाया कि मैं अँग्रेजी मे उतनी गहराई मे भावनाऎं नही अनुभव कर पाता जितना की मैं हिन्दी में कर सकता हुँ।
आप सोच सकते है कि यह शायद मेरे स्वयं के अभ्यास मे कमी के कारण है परन्तु इतने देशों में घुमने और विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले लोगो से मिलने के बाद मुझे लगता है कि मात्र भाषा वाला तर्क सार्वभौमिक है। इसलिए युरोप के लोग अँग्रेजी जानने के बाद भी अपनी मात्र भाषा मे ही लिखते और पढते हैं। मेरे स्वयं के मित्र–जो मुख्यत: पोलैंड, ईटली और फ्राँस से है–अँग्रेजी पुस्तको कि जगह अपनी मात्र भाषा मे लिखी पुस्तके पढतें हैं।
लिखने के सम्बन्ध मे भी मै कह सकता हुँ की अँग्रेजी मे थिसिस लिखना हिन्दी मे लिखने से कठिन कार्य था। मेरे ज्यादातर युरोपियन मित्रों ने भी थिसिस अपनी मात्र भाषाओं मे ही लिखी। तब मैने हिन्दी मे थिसिस लिखने की संभावनाओ को बहुत याद किया।
अन्तत: मै यही कह सकता हुँ कि विभिन्न भाषाओं का ञान नई संभावनाऐ पैदा करता है, अन्य सभ्यताओ को जानने का मौका प्रदान करता है परन्तु किसी को छोटा या बडा नही बनाता ।